नमस्ते! दोस्तों आज हम लोग जानेंगे बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? कार्य/क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? शिल्पकला केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? कोर पाठ्यक्रम क्या है? जीवन की स्थायी स्थितियों पर आधारित पाठ्यक्रम क्या है? जीवन समायोजन पाठ्यक्रम क्या है? सुसंबंध पाठ्यक्रम क्या है? आवश्यकता विकास पाठ्यक्रम क्या है? नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम क्या है? मिश्रित पाठ्यक्रम क्या है? एकीकृत पाठ्यक्रम क्या है?
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Type of Curriculum |
Type of curriculum in Hindi
पाठ्यक्रम के संगठन के विषय
में अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं। इसी आधार पर पाठ्यक्रम भी अनेक प्रकार के होते
हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1)
वाल-केन्द्रित
पाठ्यक्रम
(Child
Centred Curriculum)-
बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम का अभिप्राय उस पाठ्यक्रम से है, जिसका संगठन बालक की प्रवृत्ति, रुचि, रुझान, आवश्यकता आदि को ध्यान में रखकर किया जाता है अर्थात् इस पाठ्यक्रम में विषयों
की अपेक्षा बालकों को मुख्य स्थान दिया जाता है।
इस पाठ्यक्रम को
हम मनोवैज्ञानिक पाठ्यक्रम भी कह सकते हैं, क्योंकि यह बालक की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं पर आधारित होता है। इस पाठ्यक्रम
में जो भी विषय रखे जाते हैं वे बालकों के विकास के स्तर, उनकी रुचियों, रुझानों एवं आवश्यकताओं के अनुकूल होते हैं। वर्तमान समय की सभी शिक्षण विधियों में जैसे- मॉण्टेसरी, किंडरगार्टन, डाल्टन आदि बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम पर ही जोर
दिया जाता है। यह प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है।
(2)
विषय केन्द्रित
पाठ्यक्रम
(Subject
Centred Curriculum)-
विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें विषय को आधार मानकर पाठ्यक्रम को
नियोजित किया जाता है अर्थात् इसमें बालकों की अपेक्षा विषयों को अधिक महत्व दिया
जाता है। इस पाठ्यक्रम का आरंभ प्राचीन ग्रीक तथा रोम के विद्यालयों में हुआ । इस पाठ्यक्रम
में विषयों के ज्ञान को पृथक्-पृथक् रूप देने की व्यवस्था होती है। इसमें सभी
विषयों के अन्तर्गत आने वाले ज्ञान को अलग-अलग निश्चित कर दिया जाता है और उसी के
अनुसार विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी जाती हैं जिनसे बालकों को ज्ञान प्राप्त
होता है। चूंकि इस प्रकार के पाठ्यक्रम में पुस्तकों पर बल दिया जाता है अतः इसे 'पुस्तक-केन्द्रित पाठ्यक्रम' (Book Centred Curriculum)
भी कहा जाता है।
पुस्तकों पर आधारित होने के कारण ही यह पाठ्यक्रम अमनोवैज्ञानिक भी माना जाता है क्योंकि इसमें बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। यह पाठ्यक्रम बालकों में रटने की आदत एवं केवल परीक्षा पर ही बल देता है, परन्तु इसमें कुछ लाभ भी है।
उदाहरणार्थ- इस पाठ्यक्रम में शिक्षा के उद्देश्यों की
पूर्ति होती है, पाठ्यवस्तु पूर्व निश्चित होती है तथा एक से
अधिक विषय की पाठ्यवस्तु को एकीकृत रूप में प्रस्तुत भी किया जा सकता है। यह एक
निश्चित सामाजिक तथा शैक्षिक विचारधारा पर आधारित होता है।
(3)
कार्य/क्रिया
केन्द्रित पाठ्यक्रम
(Work/Activity
Centred Curriculum)-
कार्य/क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम अनेक प्रकार के कार्यों पर आधारित होता है अर्थात् इसके अन्तर्गत विभिन्न
कार्यों को विशेष स्थान दिया जाता है। बालक को सामाजिक मूल्य के अनेक ऐसे
कार्य करने होते हैं जो उनके सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं।
अतः कार्य केन्द्रित
पाठ्यक्रम का अभिप्रायः उस पाठ्यक्रम से हैं जिसमें विभिन्न कार्यों द्वारा
छात्रों को शिक्षा देने की योग्यता होती है। इन कार्यों व क्रियाओं का आयोजन एक ओर
छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं अनुभव तथा बौद्धिक स्तर के अनुसार तो दूसरी ओर सामाजिक मूल्यांकन एवं
आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है। कार्यों का चयन शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के
सहयोग से किया जाता है।
जॉन डीवी का मत है कि "कार्य-केन्द्रित पाठ्यक्रम द्वारा बालक
समाज उपयोगी कार्यों को करने में रुचि लेने लगेगा जिससे उसके
व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना निश्चित है।"
(4)
अनुभव केन्द्रित
पाठ्यक्रम
(Experience
Centred Curriculum)-
अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम का अभिप्राय उस पाठ्यक्रम से है जिसमें मानव जाति के अनुभव सम्मिलित किये
जाते हैं। दूसरे शब्दों में अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम विषयों की अपेक्षा
अनुभवों पर आधारित होता है। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालकों को प्रेरणा प्रदान करना है ताकि वे
अपने जीवन को उपयोगी बना सकें।
यह भौतिक तथा
सामाजिक वातावरण का अधिक से अधिक प्रयोग करता है क्योंकि इसमें बालकों को
स्वाभाविक ढंग से 'अनुभव' प्राप्त करने को मिलते हैं। यही कारण है कि यह पूर्णतया मनोविज्ञान पर
आधारित होता है। अर्थात् इसका सम्बन्ध छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं से होता है।
(5)
शिल्पकला केन्द्रित
पाठ्यक्रम
(Craft
Centred Curriculum)-
शिल्पकला केन्द्रित पाठ्यक्रम का अभिप्राय उस पाठ्यक्रम से है जिसमें किसी 'शिल्प' व 'क्राफ्ट' को केन्द्रीय विषय मानकर अन्य विषयों की शिक्षा दी जाती है।
जैसे- कताई, बुनाई, चमड़े तथा लकड़ी का काम आदि को केन्द्र मानकर दूसरे विषयों की शिक्षा दी
जाती है। इस प्रकार का पाठ्यक्रम संगठन महात्मा
गाँधी के विचार पर
आधारित है कि छात्रों को कुछ ऐसे शिल्पों की शिक्षा देनी चाहिए जिनके द्वारा एक तो
विद्यालय का खर्च निकल आये तथा दूसरे भविष्य में छात्र इसके सहारे अपनी जीविका भी
चला सके। इस प्रकार यह पाठ्यक्रम 'करके
सीखने' पर आधारित है जिसके द्वारा छात्र कोई न कोई उपयोगी कार्य
अवश्य सीख लेते हैं जो उन्हें भविष्य में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना देता है।
इस पाठ्यक्रम के द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से छात्रों के मन में श्रम के
प्रति आदर उत्पन्न होता है तथा उनके हृदय में श्रमजीवियों के प्रति सम्मान
व सहानुभूति प्राप्त होती है।
(6) कोर पाठ्यक्रम (Core Curriculum)-
कोर पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को
कहते हैं जिसमें कुछ विषय तो अनिवार्य होते हैं तथा अधिक विषय ऐच्छिक होते
हैं। अनिवार्य विषयों का अध्ययन करना प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य होता है तथा व्यक्तिगत
ऐच्छिक विषयों को व्यक्तिगत रुचियों तथा क्षमताओं के अनुसार चुना जा
सकता है।
यह पाठ्यक्रम अमेरिका
की देन है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों
प्रकार की समस्याओं के सम्बन्ध में ऐसे अनुभव दिये जाते हैं जिनके द्वारा वह अपने
भावी जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या को सरलतापूर्वक सुलझाते हुए कुशल एवं
समाजोपयोगी एवं उत्तम नागरिक बन सकता है।
कोर पाठ्यक्रम की आवश्यकता सभी
विद्यार्थियों को होती है लेकिन प्रारम्भिक स्तर पर विद्यालय में कोर पाठयक्रम की
अति आवश्यकता है। माध्यमिक स्तर पर विद्यालय के आधे समय में कोर पाठ्यक्रम के
कार्यक्रम होते हैं व उच्च शिक्षा स्तर पर इसकी मात्रा और घट जाती है।
कोर पाठ्यक्रम (Core Curriculum)
कोर पाठ्यक्रम से तात्पर्य है ऐसा
पाठ्यक्रम जिसमें कुछ विषय तो अनिवार्य हों और कई विषय ऐसे हों जिनमें से
विद्यार्थी कुछ को अपनी रुचियों के अनुसार चुन सकें। इस प्रकार का
पाठ्यक्रम अमेरिका के स्कूलों में बहुत प्रचलित हो गया है। हर विद्यार्थी
जो माध्यमिक स्तर पर होता है, वे अपनी वैयक्तिक रुचियों और योग्यताओं में
एक-दूसरे से बहुत भिन्न होता है इसलिए सब विद्यार्थियों के लिए एक ही प्रकार का
पाठ्यक्रम निर्धारित करना ठीक नहीं होता। फिर भी कुछ विषय ऐसे अवश्य होते हैं
जिनका पढ़ना प्रत्येक विद्यार्थी को (जो एक विशेष स्तर पर है) आवश्यक होता है।
कोर पाठ्यक्रम द्वारा यह प्रयास
की जाती है कि वे विषय जो प्रत्येक बालक के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, सब बालकों को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जायें।
इसके साथ ही साथ बालकों को बहुत-से विषयों में से कुछ ऐसे विषयों को चुनकर पढ़ने
की सुविधाएँ प्रदान की जायें जो उनकी रुचि तथा योग्यता के अनुसार हों।
जेम्स ली कोर पाठ्यक्रम की परिभाषा देते
हुए लिखते हैं- "कोर पाठ्यक्रम वह है जो व्यक्तिगत व शाश्वत दोनों ही प्रकार के हितों से
सम्बन्धित अन्तःक्षेत्रीय समस्याओं में केन्द्रित होता है। इसमें विषयवस्तु को
विचाराधीन समस्या के समाधान के लिए आवश्यक होने के नाते सीखने के लिए स्थान प्रदान
किया जाता है।"
"The core curriculum is
one which centres around interdisciplinary problems of both external and
personal concern. Subject material is brought into the learning situations it
is needed to solve the problems under consideration."
-JamesLee
अलबर्टी कोर पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए लिखा है- "कोर पाठ्यक्रम उस समग्र पाठ्यक्रम का एक अंग माना जा सकता है जो सभी छात्रों
के लिए आधारभूत है तथा जिसमें सीखने की उन क्रियाओं का समावेश रहता है जिनका संगठन
परम्परागत विषयों से पृथक् रखकर किया जाता है।"
"The core curriculum may
be regarded as that aspect of the total curriculum which is basic for all the
students and which consists of learning activities that are organised without
reference conventional subject lines."
-Alberty
डॉ. माथुर के शब्दों में- "कोर पाठ्यक्रम से हमारा तात्पर्य ऐसे
पाठ्यक्रम से है जिसमें कुछ विषय सभी छात्रों के लिए अनिवार्य हो तथा जिसमें कुछ
विषयों की ऐसी सूची हो जिसमें से छात्र कुछ को अपनी रुचियों के हिसाब से चुन सकें।"
"By core curriculum we
mean a curriculum in which some subjects are compulsory for all and there is a
panel of other subject from which the students may select a few according to
their interests."
-Mathur
कोर पाठ्यक्रम का मुख्य
उद्देश्य "समस्त युवकों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित अनुभव प्रदान
करना है। बालकों को वास्तविक समस्याओं के सुलझाने का अनुभव देना है और इस प्रकार
उन्हें भावी समस्याओं का सामना करने के योग्य बनाना है। इसके द्वारा बालकों को वह
अनुभव प्रदान करना है, जो उन्हें समाज का अच्छा नागरिक बनने में सहायता दे"।
इस प्रकार कोर
पाठ्यक्रम का लक्ष्य व्यक्ति तथा समाज, दोनों का विकास करना है। इसके
द्वारा बालक को ऐसा ज्ञान प्रदान करना है जो उनको वर्तमान तथा भावी समस्याओं को
सुलझाने में सहायक हो तथा बालक को एक अच्छा नागरिक बनाये।
कोर पाठ्यक्रम, क्योंकि समस्या सुलझाने पर बल देता है, इसलिए इसमें विषय एक-दूसरे से पृथक् करके नहीं
पढ़ाये जाते, वरन् कई विषय एक साथ ही पढ़ाये जाते हैं।
इस पाठ्यक्रम की दूसरी
विशेषता यह है कि किसी भी विषय को पढ़ाने के लिए कोई निश्चित समय विभाग नहीं
होता है।
जैसे- यह कोई
आवश्यक नहीं है कि कोई विषय केवल 40 मिनट के समय में समाप्त हो जाना चाहिए | इस विषय का शिक्षण 40 मिनट के घण्टे से कहीं अधिक समय तक चल सकता है।
कोर पाठ्यक्रम की तीसरी
विशेषता यह है कि यह बाल-केन्द्रित होता है। यह मनोवैज्ञानिक
दृष्टिकोण पर आधारित होता है।
और चौथी
विशेषता यह है कि कार्यों द्वारा समस्याओं को हल करने का अनुभव प्रदान
करता है। जिन विषयों का कोर पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान होना चाहिए, वे हैं-
(1)
स्वास्थ्य और
शारीरिक शिक्षा,
(2)
कला-कौशल,
(3)
बागवानी,
(4)
गणित,
(5)
इतिहास, तथा
(6)
भूगोल इत्यादि ।
1. स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा-
इस प्रकार की
शिक्षा पाठ्यक्रम में मुख्य स्थान रखती है, क्योंकि प्रत्येक बालक के शारीरिक विकास के लिए बिना शिक्षा के किसी भी
प्रकार के उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार की शिक्षा व्यायाम, तैरना, नाचना और टीम के खेलों की क्रियाओं का विद्यालय
में आयोजन करके दी जा सकती है।
2. कला कौशल-
बालकों को कला-कौशल
तथा प्रयोगात्मक क्रियाएँ रुचिकर लगती हैं, विशेष तौर पर वे जब किशोरावस्था में होते हैं। अतएव उनके पाठ्यक्रम में
कला तथा प्रयोगात्मक कार्यों को प्रधानता दिया जाना भी आवश्यक है।
उनको इस प्रकार की क्रियाएँ सिखायी जा सकती हैं।
जैसे- बुनाई, जिल्द बाँधना, लकड़ी का काम, धातु का काम, कुम्हारगीरी इत्यादि।
3. इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र इत्यादि-
ये विषय बालक की सामाजिक
भावना के विकास में अत्यन्त आवश्यक हैं। इन सब विषयों का सम्बन्ध मानव जीवन से
है, इसके द्वारा समय और स्थान के अनुसार मानव जीवन
की व्यवस्था की जाती है। अतएव मानवता सम्बन्धी उचित दृष्टिकोण का विकास करने में
इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है।
4. विज्ञान-
यह भी एक प्रधान
विषय है। वर्तमान युग में किस प्रकार प्राकृतिक शक्तियों पर मानव ने विजय प्राप्त
की है, यह हर बालक को सीखना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त
उसमें परीक्षण तथा अन्वेषण करने की भावना का विकास करना भी आवश्यक है। बालक
में निरीक्षण, समता और तुलना तथा शुद्ध सामान्य सिद्धान्तों के बनाने की
आदतों का निर्माण करना भी समाज तथा मानव कल्याण के दृष्टिकोण से
महत्त्वपूर्ण है। विज्ञान का अध्ययन इन्हीं कारणों से आवश्यक है।
5. गणित-
पाठ्यक्रम में इस विषय को
भी प्रधान विषय की भाँति रखा जाना आवश्यक है, क्योंकि यह विषय तर्क तथा अमूर्त विचारों के विकास में अत्यन्त सहायक
होता है। इसके अतिरिक्त इसकी उपयोगिता दैनिक जीवन में भी बहुत है। बिना गणित के
ज्ञान के हम दैनिक जीवन की साधारण से साधारण समस्याओं को हल करने में असफल रहेंगे।
वर्तमान युग में गणित का महत्त्व इस कारण भी अधिक है कि समस्त विज्ञान का विकास
इसी विषय पर निर्भर है।
6. भाषा-
भाषा को पाठ्यक्रम
में प्रधानता दिये बिना किसी भी प्रकार के विषय की शिक्षा सम्भव नहीं है। बिना
भाषा-ज्ञान के न तो बालक व्यक्तिगत और न सामाजिक समस्याओं का समाधान
करने में सफल होगा। भाषा को भली भाँति पढ़े बिना बालक अपने विचार व्यक्त नहीं कर
पायेगा और इस प्रकार उसका विकास रुक जायेगा।
Characteristics
of Core Curriculum
(कोर पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ/गुण)-
कोर पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ/गुण निम्नलिखित हैं-
(1) यह पाठ्यक्रम सभी छात्रों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है।
(2) इसमें विषयवस्तु के परम्परित विभाग एवं खण्ड समाप्त कर दिये जाते हैं तथा कई विषयों को एक साथ मिलकर पढ़ाया जाता है।
(3) इसमें समय विभाग चक्र लचीला होता है तथा कालांश बड़े होते हैं।
(4) इसमें छात्रों एवं शिक्षकों के सम्बन्ध अधिक घनिष्ठ होते हैं तथा अध्ययन अध्यापन के साथ-साथ परामर्श भी चलता है।
(5) इसमें शिक्षण 'समस्या केन्द्रित' होता है तथा छात्रों को कार्यों एवं समस्याओं को हल करने का अनुभव प्राप्त होता है।
(6) यह पाठ्यक्रम मनोवैज्ञानिक एवं बाल-केन्द्रित होता है।
(7) इसमें विभिन्न प्रकार के अधिगम अनुभव प्रयुक्त किये जाते हैं।
(8) इसमें अधिकतर शैक्षिक कार्यक्रम छात्र और शिक्षक मिलकर आयोजित करते हैं।
(9) इसके अन्तर्गत व्यापक निर्देशन कार्यक्रम की व्यवस्था रहती है।
(10) यह पाठ्यक्रम सबसे अधिक प्रचलित है।
Limitations
of core curriculum
(कोर पाठ्यक्रम की सीमाएं) -
कोर पाठ्यक्रम की सीमाएं निम्नलिखित हैं-
(1) इस पाठ्यक्रम में छात्रों के सभी महत्वपूर्ण अनुभवों को स्थान प्राप्त नहीं होता है।
(2) इस पाठ्यक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञान में कोई क्रमबद्धता नहीं पायी जाती तथा ज्ञान असंगठित रहता है।
(3) इस पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षण में अधिक समय लगता है।
(4) हमारे आज के शिक्षक कोर पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षा देने में कुशल नहीं होते।
(5)
इस पाठ्यक्रम के
अनुसार छात्र कॉलेजों में प्रवेश पाने के नियमों को पूरा नहीं कर पाते। अतः उनका प्रवेश
कठिन हो जाता है।
गुडलैन्ड (Goodland) ने कोर करीक्युलम की सीमाओं के बारे में
मत प्रकट करते हुए कहा है कि "दो या दो से अधिक विषयों का सम्मिश्रण शिक्षक पर शिक्षण की आवश्यकताओं
का भार बढ़ाता है तथा प्रायः सहयोगियों से सहायता की अपेक्षा करता है। माध्यमिक
स्तर पर जहाँ पाठ्यवस्तु का स्तर एवं परिमाण बढ़ जाता है, कोर पाठ्यक्रम के कार्यान्वयन में विशेष
कठिनाई होती है। इसीलिए माध्यमिक स्तर पर कक्षा-शिक्षक के स्थान पर विषय-शिक्षक की
व्यवस्था प्रचलित है। अतः यह पाठ्यक्रम प्राथमिक तथा निम्न माध्यमिक स्तर तक ही उपयुक्त होता है।"
जीवन की स्थायी स्थितियों पर आधारित पाठ्यक्रम (Persistent Life Situations Curriculum)
जेम्स एम. ली के अनुसार, "जीवन की स्थायी स्थितियों पर आधारित पाठ्यक्रम उन अनवरत रूप से चलने वाली
स्थितियों में निहित है जिनमें प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को अपने विकास के प्रत्येक
स्तर पर समाज में पाता है।"
जेम्स एम. ली ने जीवन की इन
स्थितियों को तीन भागों में विभाजित किया है-
(i) वैयक्तिक क्षमताओं के विकास से सम्बन्धित स्थितियाँ-
इसके अन्तर्गत स्वास्थ्य, बौद्धिक शक्ति, सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति, मूल्यांकन तथा नैतिक शक्तियों के विकास से सम्बन्धित स्थितियों को स्थान दिया जाता है।
(ii) सामाजिक सहभागिता के विकास से सम्बन्धित स्थितियाँ-
इसके अन्तर्गत व्यक्ति, व्यक्ति के सम्बन्धों, सामूहिक सम्बन्धों तथा अन्तः सामूहिक सम्बन्धों
के विकास से सम्बन्धित
स्थितियों को सम्मिलित किया जाता है।
(iii) वातावरण से सम्बन्धित कारकों एवं शक्तियों के प्रति प्रतिक्रिया-
क्षमता से
सम्बन्धित स्थितियाँ इस प्रकार की स्थितियों में प्राकृतिक घटनाओं, प्रौद्योगिकी से प्राप्त साधनों, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्थितियों को स्थान दिया जाता है।
इस प्रकार के
पाठ्यक्रम का आरंभ एफ.बी.
स्ट्रेटमेयर (F.
B. Stratemeyer) के विचारों से हुआ। यह पाठ्यक्रम बालकों की तात्कालिक
आवश्यकताओं एवं हितों पर आधारित है। ये आवश्यकताएँ एवं हित जीवन की स्थायी
स्थितियों के क्षेत्र में निहित हैं। यह पाठ्यक्रम, बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम से बहुत कुछ समानता रखता है।
जीवन समायोजन पाठ्यक्रम
(Life
Adjustment Curriculum)
विद्यालयों की
प्रायः इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उनमें प्रदान की जाने वाली शिक्षा का
वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता है जिसके कारण बालकों को सामाजिक जीवन में
समायोजित होने में कठिनाई होती है। अन्य देशों की तरह अमेरिकी विद्यालयों
को भी ऐसी आलोचना का केन्द्र बनना पड़ा। अमेरिकी विद्यालयों
के बारे में दूसरी बात यह भी कही गई कि प्रचलित व्यवस्था में विद्यालयों एवं
समुदाय दोनों के उपलब्ध साधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है।
अतः विद्यालयों
एवं स्थानीय समुदाय में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने तथा उन्हें उपलब्ध साधनों
का पारस्परिक रूप से अधिकतम उपयोग करने पर बल प्रदान किया गया तथा इस उद्देश्य की
पूर्ति के लिए सामुदायिक विद्यालयों (Community Schools) की स्थापना की गई। ऐसे विद्यालयों के दो रूप
विकसित हुए-
1. विद्यालयी
प्रबन्ध, सामुदायिक स्रोतों तथा सामुदायिक प्रयोजनाओं के द्वारा सामुदायिक जीवन की शिक्षा देने वाले
विद्यालय तथा
2. अपने साधनों, प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों, सामुदायिक जीवन में सक्रिय रहने वाले शिक्षकों की सहायता से
सामुदायिक केन्द्र के रूप में कार्य करने वाले विद्यालय अर्थात् बालकों के साथ-साथ
पूरे समुदाय की सेवा करने वाले विद्यालय ।
जीवन समायोजन पाठ्यक्रम के अन्तर्गत स्वास्थ्य, नागरिकता, व्यावसायिक ज्ञान, गृह सदस्यता तथा अवकाशकालीन क्रियाओं को विशेष महत्त्व दिया गया। इस प्रकार के
पाठ्यक्रम 1940 के बाद विकसित हुए तथा एक दशक के अन्दर 1950 तक ही लुप्तप्राय हो गये।
क्रग (Edward A. Krug) के अनुसार जीवन समायोजन पाठ्यक्रम के शीघ्र
लुप्त होने का प्रमुख कारण उसके आलोचकों द्वारा उसे बौद्धिकता विरोधी घोषित करना
था।
सुसंबंध पाठ्यक्रम
(Correlated
Curriculum)
प्रचलित पाठ्यक्रम
के अन्तर्गत जो विषय पढ़ाये जाते हैं उनमें सुसंबंधता की कमी होती है।
प्रायः विषयों को ज्ञान की पृथक् इकाई मानकर पढ़ाया जाता है, जबकि ज्ञान एक पूर्ण इकाई है। अतः ज्ञान
को अलग-अलग बाँटकर पढ़ाने की अपेक्षा विभिन्न विषयों को परस्पर सम्बन्धित करके
पढ़ाया जाना चाहिए । इसका उद्देश्य से सुसंबंध पाठ्यक्रम अर्थात् समवाय आधारित
पाठ्यक्रम का उदय हुआ।
सुसंबंध पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न पाठ्यविषयों को परस्पर संबंधित करके पढ़ाने के प्रयोग
किये गये हैं। इस पाठ्यक्रम का महत्त्व इसलिए है कि इसमें एक विषय का अधिगम
दूसरे विषय के अधिगम का पुनर्बलन करता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक विषय
अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखता है तथा उनके लिए समय सारिणी में अलग-अलग
समय की भी व्यवस्था रहती है, परन्तु प्रयास यह किया जाता है कि एक समय पर विभिन्न विषयों में समान अथवा
मिलते-जुलते प्रकरणों का ज्ञान प्रदान किया जाये।
उदाहरणार्थ- यदि इतिहास विषय
के अन्तर्गत किसी काल विशेष का ज्ञान दिया जा रहा हो तो उन्हीं दिनों साहित्य विषय
के अन्तर्गत उस काल का साहित्य भी पढ़ाया जाना चाहिए। इसी प्रकार भाषा-शिक्षण
के अन्तर्गत वर्तनी और शब्द का ज्ञान देते समय शब्दों का चयन उन दूसरे सभी विषयों
की पाठ्यवस्तु से किये जाने चाहिए जो उस समय पढ़ाये जा रहे हों।
आवश्यकता विकास पाठ्यक्रम
(Need Development Curriculum)
आवश्यकता विकास पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सर्वप्रथम बालकों की मूलभूत आवश्यकताओं को निर्धारित किया जाता है तथा उसके बाद इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयुक्त क्रियाओं एवं अनुभवों का आयोजन किया जाता है। इन आवश्यकताओं में प्रमुख रूप से शारीरिक, मानसिक, भावात्मक तथा सामाजिक आवश्यकताएँ सम्मिलित होती हैं। बालकों की इन आवश्यकताओं को कुछ विद्वान विकास प्रक्रिया का अंग मानते हैं। इनके अनुसार बालक विकास के कई क्रमिक चरणों से होकर गुजरते हैं। इस योजना के अन्तर्गत बालकों की आवश्यकताओं को उसी क्रम में पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है। इसीलिए इस योजना को आवश्यकता विकास का पाठ्यक्रम का नाम दिया गया है।
यह पाठ्यक्रम अधिगम-तत्परता, अभिप्रेरणा, व्यक्तिगत भेद तथा छात्रों की आवश्यकताओं के
सिद्धान्त पर आधारित है।
अतः यह योजना सर्वाधिक स्वीकार्य होनी चाहिए, किन्तु व्यावहारिक रूप में, क्रियान्वयन की दृष्टि से कठिन होने तथा परम्परागत विषय आधारित पाठ्यक्रम
से भिन्न होने के कारण इसे बहुत कम अपनाया गया है।
आवश्यकता आधारित पाठ्यक्रम के गुण-
आवश्यकता आधारित पाठ्यक्रम के
गुण निम्नलिखित हैं-
1. यह पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं, अभिरुचियों, अनुभवों एवं समस्याओं पर आधारित होता है, अतः विद्यालयी शैक्षिक क्रियाएँ उनके लिए अत्यन्त उपयोगी होती हैं।
2. इससे बालकों को ऐसे ज्ञान, मूल्य, कौशल, अभिवृत्ति एवं अवबोधन की प्राप्ति होती है जो उन्हें समाज में
प्रभावी योगदान हेतु योग्य एवं सक्षम बनाते हैं।
3. इससे बालकों का वैयक्तिक विकास संतोषजनक
ढंग से होता है।
4. इसमें अधिगम का एकीकरण सरलता से होता है।
आवश्यकता आधारित पाठ्यक्रम की सीमाएँ-
इस प्रकार के
पाठ्यक्रम की पर्याप्त आलोचना भी की गई हैं तथा इसे बहुत कम अपनाया भी गया है।
इसके प्रमुख कारण इसकी कमियाँ अर्थात् सीमाएँ हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. बालकों की आवश्यकताओं, अभिरुचियों तथा समस्याओं को निर्धारित कर पाना बहुत कठिन होता है। मानव की आवश्यकताओं के संबंध में ऐसे निश्चित कथन अब तक नहीं कहे जा सके हैं जो मनोवैज्ञानिकों को संतुष्ट कर सकें।
2. कार्य की इकाइयों के चयन के लिए पाठ्यक्रम निर्माताओं द्वारा प्रयुक्त आवश्यकताओं की सूचियों की वैधता प्रायः संदिग्ध रहती है तथा बालकों की अभिरुचियों एवं समस्याओं से संबंध कथन और भी अधिक अस्पष्ट एवं संदिग्ध होते हैं।
3. इस प्रकार के पाठ्यक्रम में ज्ञान, अन्वेषण विधियाँ तथा विषयों की गहनता बहुत सीमित हो जाती है।
4. इस प्रकार के पाठ्यक्रम से विद्यालयों के सामाजिक दायित्व भी कम हो जाते हैं।
5. यह योजना विद्यालयों के व्यवस्थित कार्यक्रम में अवरोध उत्पन्न करती हैं।
6. विद्यालयों की वर्तमान शैक्षिक स्थितियाँ इस प्रकार के पाठ्यक्रम के अनुकूल नहीं दिखती हैं।
नियन्त्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम
(Curriculum
Centred on Controlled Problems)
आवश्यकता आधारित पाठ्यक्रम की बहुत अधिक कमियों के कारण उसे अपनाने में बहुत कम रुचि दिखलाई गई। इन
कमियों को दूर करने के उद्देश्य से बालकों की समस्याओं को नियंत्रित करने की योजना
बनाई गई। इस योजना के अंतर्गत सम्बंधित छात्रों द्वारा अनुभूत समस्याओं को नियंत्रित
करके, उसके आधार पर पाठ्यक्रम को नियोजित करने के
प्रयास किये जाते हैं। इसीलिए इसे नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम कहा
जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम के जहाँ अनेक लाभ हैं, वहीं इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं।
नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम के लाभ:
नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम के लाभ निम्नलिखित हैं-
1. इसमें कोई निर्धारित अन्तर्वस्तु न होने के कारण शिक्षक स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सकता है।
2. इसमें वास्तविक निर्देशन प्रदान करना सम्भव होता है।
3. इससे व्यापक तथा मूलभूत लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है।
4. इसमें अनावश्यक विषयवस्तु को छोड़ा या हटाया जा सकता है।
5. इस योजना में अधिगम स्वाभाविक ढंग से होता है।
6. इसमें छात्र अधिक सक्रिय रहते हैं।
7. इसमें आधुनिकतम कार्य विधियाँ अपनाई जा सकती हैं।
नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम की सीमाएँ:
नियन्त्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम
की सीमाएँ निम्नलिखित
हैं-
1. इस योजना के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है।
2. अधिकांश विद्वान अपरिपक्व बालकों द्वारा अनुभूत समस्याओं को ठोस आधार मानना उपयुक्त नहीं समझते। उनके अनुसार यह योजना गाड़ी को घोड़े के सामने रखने जैसी लगती है।
3. इस योजना के क्रियान्वयन में प्रायः यह देखने में आता है कि क्रियाएँ तो अवश्य अधिक हो जाती है, किन्तु वही परम्परित विषयगत शिक्षण चलता रहता है।
4. ऐसे छात्रों की संख्या बहुत कम होती है जो समस्याओं की ठीक ढंग से अनुभूति कर सकते हैं। ऐसा देखने में आया है कि छात्र प्रायः समस्याएँ घढ़ लेते हैं, क्योंकि उनका मूल्यांकन उनकी सक्रियता से सम्बन्धित होता है। अतः समस्याओं की वास्तविकता संदिग्ध होती है।
5. इसमें कार्य का पर्यवेक्षण करने तथा प्रगति का आंकलन करने का कोई निश्चित ढंग एवं आधार नहीं मिल पाता है।
व्यापक क्षेत्रीय अथवा मिश्रित पाठ्यक्रम
(Broad
field or Fusion Curriculum)
सामाजिक जीवन की
निरन्तर बढ़ती हुई जटिलताओं ने एक तरफा तो विशिष्टीकरण को बढ़ावा दिया जिसके
परिणामस्वरूप ऐसे विशेषज्ञों की संख्या में वृद्धि होती चली गई जो न केवल एक
क्षेत्र विशेष, बल्कि उसकी भी किसी एक विशिष्ट छोटी इकाई के
सूक्ष्म अध्ययन में जुट गये जबकि दूसरी तरफ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत सभी
व्यक्तियों को अपने सामान्य जीवन के लिए अधिक से अधिक विविध ज्ञान
प्राप्त करना अनिवार्य होता चला गया।
इस समस्या समाधान
के उद्देश्य के परिणामस्वरूप विद्यालयों में अनिवार्य सामान्य पाठ्यक्रम के विषयों
की संख्या में लगातार वृद्धि होती चली गई जिससे पाठ्यक्रम बोझिल हो गया। इससे एक
जटिल स्थिति उत्पन्न हो गई, क्योंकि किसी भी विषय को बिना उसकी उपादेयता कम
किये, पाठ्यक्रम से निकाल पाना सम्भव नहीं लगता था।
इस जटिल स्थिति से
निपटने के लिए शिक्षाविदों एवं विषय-विशेषज्ञों ने सभी दृष्टिकोणों से विश्लेषण
करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि इस समस्या के समाधान का एक उपाय एक दूसरे से सम्बद्ध विषयों
का समूहीकरण हो सकता है। विभिन्न पाठ्य-विषयों का विश्लेषण करने पर यह अनुभव
किया गया कि जहाँ एक दृष्टि से देखने पर कोई भी ऐसा विषय नहीं मिल पाता जिसे
पूर्णतया पाठ्यक्रम से निकाला जा सके वहीं प्रायः सभी विषयों में कुछ ऐसे प्रकरण
सम्मिलित हैं जिन्हें आंशिक अथवा पूर्णरूपेण पाठ्यक्रम से निकाल देने पर किसी
प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं है।
इसी प्रकार कुछ
प्रकरणों के विस्तृत अध्ययन की अपेक्षा उनकी सामान्य चर्चा से भी काम चल सकता है।
इस निष्कर्ष ने पाठ्य-विषयों के संग्रथन अथवा मिश्रण (Fusion) के सिद्धान्त पर आधारित व्यापक क्षेत्रीय
पाठ्यक्रम को जन्म दिया; जिसके अन्तर्गत इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों को मिश्रित करके 'सामाजिक विज्ञान तथा भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि विषयों को मिश्रित करके 'सामान्य विज्ञान'
जैसे विषय तैयार
किये गये। इस प्रकार के
पाठ्यक्रम में विभिन्न अधिगम क्षेत्रों का भी समूहन किया जाता है।
उदाहरणार्थ- उच्चारण अभ्यास, शब्द लेखन एवं वर्तनी, सुलेख तथा अन्य भाषा कौशल, भाषा कलाओं के रूप में पढ़ाये जाते हैं।
व्यवसाय केन्द्रित पाठ्यक्रम (Vocational Curriculum) -
कुछ विद्यालयों
में बालकों को व्यावसायिक एवं तकनीकी कार्य भी सिखाये जाते हैं। इस प्रकार
के कार्यों से सम्बन्धित पाठ्यवस्तु को व्यवसाय केन्द्रित पाठ्यक्रम अथवा व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रम
कहा जाता है। इसमें प्रमुख रूप से कौशल का विकास किया जाता है। वर्तमान समय
की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा रोजगार की गारण्टी होने से इस प्रकार के
पाठ्यक्रमों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। विशिष्ट विद्यालयों के अतिरिक्त सामान्य
विद्यालयों में भी इस प्रकार के पाठ्यक्रम लागू किये जा रहे हैं।
शिल्प कला-केन्द्रित पाठ्यक्रम (Craft Centred Curriculum)-
जब विद्यालयों में
बालकों को विभिन्न प्रकार की शिल्पकलाओं जैसे-कृषि, कताई-बुनाई, चमड़े तथा लकड़ी का कार्य आदि सीखने के लिए विशेष अवसर दिये जाते हैं तो
इसके लिए निर्धारित विषयवस्तु को शिल्पकला केन्द्रित पाठ्यक्रम कहा जाता
है।
गाँधीजी की बेसिक शिक्षा अर्थात्-बर्धा शिक्षा योजना में इस
प्रकार के पाठ्यक्रम को महत्व दिया जाता है। इसमें अन्य विषयों जैसे– मातृभाषा, गणित, समाजविज्ञान, चित्रकला, संगीत, शरीर विज्ञान तथा सामान्य विज्ञान की शिक्षाशिल्पों को केन्द्रित करते हुए दी जाती है।
पूर्णतया मुक्त पाठ्यक्रम (Emerging Curriculum)-
पाठ्यक्रम का सबसे
अधिक लचीला उपागम एमर्जिंग करीक्युलम अथवा पूर्णतया मुक्त पाठ्यक्रम के रूप
में प्रकाश में आया है। ऐसे पाठ्यक्रम की कोई संगठनात्मक संरचना नहीं होती है।
वास्तव में मानव जीवन की क्रियाओं अर्थात् जीवन प्रवृत्तियों पर आधारित पाठ्यक्रम के
विभिन्न रूप विकसित हुए हैं। इनमें अनुभव पाठ्यक्रम के नाम से प्रचारित पूर्णतया संरचना विहीन पाठ्यक्रम से लेकर आवश्यकता पाठ्यक्रम के नाम से प्रचलित संरचित पाठ्यक्रम तक सम्मिलित हैं। इस प्रकार संरचना विहीन पाठ्यक्रम, क्रिया आधारित पाठ्यक्रम का ही एक रूप है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम के
प्रमुख लाभ एवं कमियाँ निम्नलिखित हैं-
पूर्णतया मुक्त पाठ्यक्रम के लाभ:
पूर्णतया मुक्त
पाठ्यक्रम के लाभ निम्नलिखित
है-
1. इसका कोई निर्धारित स्वरूप न होने के कारण बालक वास्तविक रूप में आधारित अर्थात् मौलिक बातें सीख सकते हैं। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भी यही है।
2. इसमें किसी भी प्रकार की निर्धारित सीमाएँ न होने के कारण शैक्षिक प्रयास अधिक विस्तृत एवं एकीकृत होंगे।
3. इससे शिक्षा और शिक्षण में स्पष्टता रहेगी। कोई
भी ऐसी संकल्पना नहीं होगी जिसे समझ पाना कठिन हो।
4. इसमें व्यक्तिगत प्रयासों को समुचित मान्यता
मिलती है, अतः इस प्रकार के पाठ्यक्रम से प्रतिभाओं को
विकसित होने के समुचित अवसर मिल सकेंगे।
पूर्णतया मुक्त पाठ्यक्रम की सीमाएँ:
पूर्णतया मुक्त पाठ्यक्रम की
सीमाएँ निम्नलिखित है-
1. इसमें महत्वपूर्ण ज्ञान तथा आधारिक कुशलताओं
की उपेक्षा हो सकती है।
2. इसके लिए आवश्यक अधिगम सामग्री तथा स्रोत पूरी
तरह से उपलब्ध नहीं हो सकेंगे।
3. इससे शिक्षकों का कार्य भार बहुत अधिक बढ़
जायेगा।
4. अधिकांश शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को इससे
असुविधा ही होगी।
एकीकृत पाठ्यक्रम
(Integrated
Curriculum)
अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition)-
20वीं शताब्दी में
मनोविज्ञान के क्षेत्र में अनेक नये प्रयोग हुए तथा अधिगम के अनेक
सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये । इन्हीं प्रयोगों ने गेस्टाल्टिज्म (Gestaltism) अर्थात् पूर्णतावाद को जन्म दिया। इसके
अनुसार "मस्तिष्क
एक इकाई है। मस्तिष्क ज्ञान को छोटे-छोटे टुकड़ों में प्राप्त नहीं करता, बल्कि उसे पूर्ण रूप में ग्रहण करता है। वही
वस्तु या विचार मस्तिष्क में स्थिर होता है जो पूर्ण अर्थ देता है।" इन मनोवैज्ञानिक खोजों ने शिक्षा को प्रभावित
किया तथा गेस्टाल्टवाद के अनुसार अमेरिकी विद्यालयों में एकीकृत
पाठ्यक्रम का विकास हुआ। एकीकृत पाठ्यक्रम एकीकरण के सिद्धान्त
पर आधारित है जिसके अनुसार कोई विचार तथा क्रिया तभी प्रभावशाली एवं उपयोगी
होती है जब उसके विभिन्न भागों या पक्षों में एकता होती है।
अतः एकीकृत
पाठ्यक्रम से हमारा तात्पर्य उस पाठ्यक्रम से है जिसमें उसके विभिन्न विषय एक दूसरे
से इस प्रकार सम्बन्धित होते हैं कि उनके बीच कोई अवरोध नहीं होता, बल्कि उनमें एकता होती है। इस प्रकार पाठ्यक्रम
के विभिन्न विषयों के ज्ञान को विभिन्न खण्डों में प्रस्तुत न करके, विषय मिलकर ज्ञान को एक इकाई के रूप में
प्रस्तुत करते हैं।
कुछ विद्वानों का
मानना है कि 'ज्ञान एक है'। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम के सभी विषय ज्ञान रूपी
इकाई के विभिन्न अंग है। पठन पाठन की सुविधा तथा कुछ अन्य व्यावहारिकताओं के कारण
शिक्षा के पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभक्त कर दिया गया है, किन्तु इस विभाजन का यह अर्थ नहीं है कि बालकों
को विभिन्न विषयों का अलग-अलग ज्ञान कराया जाये।
शिक्षा का उद्देश्य बालकों को ज्ञान की एकता से परिचित कराना है। यह उद्देश्य विषयों को अलग-अलग
रूप में पढ़ाने से पूर्ण नहीं हो सकता अर्थात् यह कार्य तभी सम्पन्न हो सकता है, जबकि विषयों को एक दूसरे से सम्बन्धित करके
पढ़ाया जाये । इसके लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न विषयों को इस प्रकार परस्पर
सम्बन्धित किया जाये कि उनके बीच किसी प्रकार की दीवार न हो। यह दायित्व शिक्षक का
ही है कि वह पाठ्यक्रम के सभी विषयों को सम्बन्धित करे, पाठ्यक्रम की सामग्री का जीवन से सम्बन्ध
स्थापित करे तथा प्रत्येक विषय-सामग्री में भी सह-सम्बन्ध स्थापित करे। इस प्रकार जो
पाठ्यक्रम उक्त सभी प्रकार के सम्बन्धों से युक्त हो, उसे ही ‘एकीकृत पाठ्यक्रम' की संज्ञा दी जायेगी।
हेन्डरसन (Henderson) ने एकीकृत पाठ्यक्रम की परिभाषा निम्न
प्रकार से की है-
"एकीकृत पाठ्यक्रम वह पाठ्यक्रम है जिसमें
विषयों के बीच कोई अवरोध, रुकावट अथवा दीवार नहीं होती है।"
"A Curriculum in which
barriers between subjects are broken down in often called an integrated
curriculum.”
-Henderson
हेन्डरसन के अनुसार इस
प्रकार का पाठ्यक्रम उन अनुभवों को देता है जिन्हें एकीकरण की प्रक्रिया के लिए
सुविधाजनक समझा जाता है तथा जिससे बालक उस पाठ्यवस्तु को सीखते हैं जो अनुभवों को
समझने में एवं उनके पुनर्निर्माण में सहायक होती है। इस प्रकार का अनुभव प्रधान
पाठ्यक्रम विषय को अलग-अलग रखने तथा उनको शीर्षकों में बाँटने का अन्त करता है
एवं ऐसे विषयों को स्थान देता है जो बालक की रुचि के केन्द्र होते हैं।
एकीकृत पाठ्यक्रम की विशेषताएँ (Characteristics of Integrated Curriculum)
एकीकृत पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
1. इस पाठ्यक्रम में ज्ञान को समग्र रूप में
प्रस्तुत किया जाता है।
2. इसके माध्यम से छात्र विभिन्न विषयों का ज्ञान
एक साथ प्राप्त करते हैं।
3. यह पाठ्यक्रम अनुभव केन्द्रित होता है।
4. इससे बालकों को जीवनोपयोगी शिक्षा मिलती है।
5. इसमें छात्रों की रुचियों को महत्व दिया जाता
है।
6. इस पाठ्यक्रम से शिक्षकों का उत्तरदायित्व एवं
कार्य भार बढ़ जाता है।
7. इस पाठ्यक्रम की सफलता के लिए शिक्षक को
पर्याप्त एवं व्यापक अध्ययन की आवश्यकता होती है।
8. इसमें छात्रों के पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान को
सम्बन्धित करने में आसानी होती है।
प्रचलित पाठ्यक्रम में एकीकरण का अभाव
(Lack
of Integration in Existing Curriculum)-
भारतवर्ष के
स्कूलों में परम्परागत पाठ्यक्रम का प्रचलन है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों
पर जो पाठ्यक्रम प्रयोग में लाया जा रहा है, उसमें ज्ञान एवं अनुभव के समग्र रूप को विभिन्न विषयों में बाँट दिया जाता है।
अतः ज्ञान में
एकता का अभाव रहता है तथा विभिन्न विषय एक दूसरे से सम्बन्धित नहीं होते हैं।
परिणामस्वरूप बालकों को वास्तविक ज्ञान नहीं मिल पाता।
उदाहरण के लिए प्राथमिक
विद्यालयों में प्रतिदिन लगभग एक घण्टा पुस्तकों को पढ़ने में, 30 मिनट से 40 मिनट तक अंकगणित के प्रश्न करने में, 30 मिनट लिखने एवं शब्दों का उच्चारण करने में तथा 20-30 मिनट सुलेख लिखने में व्यतीत किये जाते हैं, किन्तु इन सभी क्रियाओं में सामान्य रूप से कोई
सम्बन्ध नहीं होता है। इससे कोई भी विचार छात्रों
को एक साथ नहीं मिल पाता है।
माध्यमिक स्तर पर
भी लगभग यही स्थिति है। बालकों को अनेक विषय पढ़ाये जाते हैं किन्तु उनका एक दूसरे
से सम्बन्ध नहीं होता है। इस स्तर पर आमतौर पर 10 से 12 विषय एवं उप-विषय पढ़ाये जाते हैं। इतने अधिक
विषय छात्रों के लिए कठिनाई उत्पन्न करते हैं। भाषा एवं साहित्य का शिक्षक
भाषा-शिक्षक के समय सामाजिक विषय एवं विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं
सोचता है; इसी प्रकार विज्ञान शिक्षक विज्ञान पढ़ाते समय
सामाजिक विषयों के सम्बन्ध में बिल्कुल ध्यान नहीं रखता है।
अतः छात्र ज्ञान
की विभिन्न शाखाओं में कोई सम्बन्ध नहीं स्थापित कर पाते तथा वे उन्हें पूर्णतया
पृथक् विषय समझते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि बालकों को वास्तविक संसार का
बहुत कम ज्ञान हो पाता है। अतः इस परिस्थिति
में सुधार लाने के लिए पाठ्यक्रम में एकीकरण आवश्यक है।
एकीकृत पाठ्यक्रम के प्रयोग में कठिनाइयाँ
(Difficulties
in the use of Integrated Curriculum)-
एकीकृत पाठ्यक्रम
के निर्माण एवं प्रयोग में निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है-
1. बालकों की रुचियों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में एकीकरण
बहुत अधिक कठिन है।
2. इसके द्वारा छात्रों की विशिष्ट रुचियों का
विकास कठिन होता है।
3. इसमें ज्ञान की एक निश्चित रूपरेखा नहीं बन
पाती है।
4. इस पाठ्यक्रम में सभी विषयों का एक साथ एकीकरण
कर सकना असम्भव होता है।
5. इस प्रकार के पाठ्यक्रम में शिक्षण में बहुत
अधिक समय लगता है तथा शिक्षक का कार्य भार बढ़ जाता है।
6. माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर विषयों का
एकीकरण उचित नहीं होता है।
7. इस पाठ्यक्रम के प्रयोग के लिए उपयुक्त
शिक्षकों का बहुत अधिक अभाव है।
8. अधिकांश शिक्षक इसके प्रयोग के लिए तैयार नहीं
होते हैं तथा इससे बहुत अधिक असुविधा का अनुभव करते हैं।
मुझे आशा है कि आपलोग बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? कार्य/क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? शिल्पकला केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? कोर पाठ्यक्रम क्या है? जीवन की स्थायी स्थितियों पर आधारित पाठ्यक्रम क्या है? जीवन समायोजन पाठ्यक्रम क्या है? सुसंबंध पाठ्यक्रम क्या है? आवश्यकता विकास पाठ्यक्रम क्या है? नियंत्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम क्या है? मिश्रित पाठ्यक्रम क्या है? एकीकृत पाठ्यक्रम क्या है? समझ गए होंगे।